Saturday, May 12, 2012

चार महीने सिर्फ बीते है मेरी माँ के जनाज़े को

चार महीने सिर्फ बीते है मेरी माँ के जनाज़े को
शर्म भी नहीं आती मुझे मशवरा देने वालों को.

माँ की सीख ने बांध रखी है मेरी जुबान को
वरना खुले-ए-बाज़ार बेइज़्ज़हत करता मुझे समझाने वालों को

(माँ के वक़्त... उस वक़्त...)
तब कोई नहीं आया जब मैं पुकारता रहा साथ देने वालों को 
जी चाहता है कफ़न तोहफा करूँ निकाह की तजवीज़ देने वालों को

और

(मोबाइल पर चर्चा कहा हो पाती हैं...)
जवाब-ए-नजराना तो हम भी उसे खूब देते रोमिल
काश वोह दो पल तो देते आमने-सामने बैठकर गुफ्तुगू के तरीके से गुफ्तुगू को।

- रोमिल

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