Friday, May 18, 2012

एक अजब सी परेशानी, एक अजब सी बेक़रारी हैं,

एक अजब सी परेशानी,
एक अजब सी बेक़रारी हैं,
रात भर बैठा सोचता रहता हूँ
न जाने कैसी बीमारी हैं।

माँ के बिना ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती
फिर भी जिए जा रहा हूँ
न जाने कैसी लाचारी हैं।

सोचता हूँ तोड़ दूं इस आशियाने को 
जिसमे माँ के साथ दिन-रात गुजारी हैं
यह सिर्फ आशियाना नहीं यादों का महल है 
यह गम-ए-दिल जहाँ से भारी हैं।

और

हमको ही पाने की चाहत हैं
हमसे ही मुहब्बत हैं  
फिर न जाने यह क्यों परदे-दारी हैं।
खुदा-जाने...

- रोमिल 

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