गोबर से जब माँ आंगन को लीपा करती थी
मुख में जपजी साहिब, सुखमनी साहिब , गुरबानी वचन को बोला करती थी.
खड़ाऊ, रसोई घर के बाहर ही रखती थी
चूल्हा जलाने से पहले वंदना किया करती थी.
जाड़े में नहला कर चटाई पर धूप सिखवाती थी
माथे पर चन्दन का टिका लगाती थी.
रोमिल, माँ जब मेरे पास होती थी
मेरी हर प्रभात शुभ होती थी.
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