ख़ामोशी कुछ कान में कह जाती है
बहती हवा चेहरे पर मेरे अंगड़ाई लेकर निकल जाती हैं
सूरज आँखों को मेरे खोलता है
माँ का चेहरा दीवार में लटकी तस्वीर में से खिलखिला उठता हैं
सुबह फिर सुहानी सी लगने लगती है
दिन भी सुकून-ओ-चैन से कटता है
रात फिर आती है
अकेले तन्हाई में मुझे सताती है
सिर से चादर ओढकर, आँख बंद कर सोने की कोशिश करता हूँ
न जाने कब उस अँधेरी चादर में सुबह आ जाती है
ख़ामोशी कुछ कान में कह जाती हैं।
और
लगता है जन्मों से दुकान-ए-दीद हैं बंद
सनम का चेहरा जो नकाब ने ऐसा ढक रखा हैं।
- रोमिल
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