Tuesday, November 16, 2010

पूछो न यारों किसी क़दर वोह रात बिताई थी...

सबसे नज़र बचा कर वोह मुझसे मिलाने आई थी
पूछो न यारों किसी क़दर वोह रात बिताई थी...
*
कुछ तो सर्दी का आलम था
कुछ जिस्म भी अपना गरम था
दूर-दूर खड़े थे दोनों
आँखों से शमा जलाई थी...
पूछो न यारों किसी क़दर वोह रात बिताई थी...
*
मेरी गोद में लेट कर
बाज़ुओं में मेरी उसने मुहब्बत की नयी दुनिया सजाई थी  
पूछो न यारों किसी क़दर वोह रात बिताई थी...
*
चूडियो की खनखनात
पायल की झंकार
चाँद ने छत पर सफ़ेद चांदनी बिछाई थी
पूछो न यारों किसी क़दर वोह रात बिताई थी...
*
उसके दुपट्टे का मेरे चेहरे पर उड़ना
होंठो का बेबसी सा तड़पना 
खुदा ने भी कैसे शर्म की निगाह बनायी थी... 
पूछो न यारों किसी क़दर वोह रात बिताई थी...
[copyright reserved]

No comments:

Post a Comment