घर के छज्जे पर खड़ा मैं सोच रहा था
यादों के मौसम से कुछ फूल मैं तोड़ रहा था...
घर के आंगन में माँ की कुर्सी नहीं दिखाई देती
गुरबानी के शब्द
न तो
माँ की डांट अब सुनाई देती.
एक कमरे में कैसे सारी दुनिया समां जाती थी
हँसते-हँसते पेट में मरोड़ पड़ जाती थी
अब व्यंग-बाण सी बातें नहीं सुनाई देती
घर के आंगन में माँ की कुर्सी नहीं दिखाई देती.
जन्मदिन पर खीर अब बनती नहीं
थाली से झूठन कोई समेटता नहीं
व्यंजन की तारीफ की बातें नहीं सुनाई देती
घर के आंगन में माँ की कुर्सी नहीं दिखाई देती.
#रोमिल
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