Friday, November 26, 2010

उसके ख़त हैं या जन्नत मेरी

उसके ख़त हैं या जन्नत मेरी
उसके ख़त हैं या जन्नत मेरी
गुपचुप रहते हैं
फिर पुछा करते हैं खेरियत मेरी...
उसके ख़त हैं या जन्नत मेरी
*
ख़ामोशी को मेरी पल भर में समझ जाते हैं
गम में मेरी रोते हैं
ख़ुशी में मेरी मुस्कुराते हैं
समझते हैं हर इल्तिजा मेरी...  
उसके ख़त हैं या जन्नत मेरी
*
तलाश-ए-यार में छोड़ी थी ज़मीन हमने
न सर पर आसमान था
न साथ अपने
हर पल साथ देते हैं नादान मेरी
उसके ख़त हैं या जन्नत मेरी
*
ज़माने ने सितम लाख किये हैं मुझपे
हसे हैं 
मुस्कुराये हैं मुझपे 
दागे हैं बदनामी के लाख निशान मुझपे
करते हैं यह मोहब्बत की हिफाज़त मेरी...
उसके ख़त हैं या जन्नत मेरी
गुपचुप रहते हैं
फिर पुछा करते हैं खेरियत मेरी...
उसके ख़त हैं या जन्नत मेरी
[copyright reserved]

No comments:

Post a Comment