Tuesday, March 13, 2012

कहने को माँ रोज घर मैं जाता हूँ

कहने को माँ रोज घर मैं जाता हूँ
पर कहाँ घर जैसा सुख-शांति-संतोष मैं पाता हूँ.

हवा जैसे बालकनी में अटक गई हो
फर्श पर जैसे उदासी फैली पड़ी हो
दहलीजों को आने-जाने वालों से कोई मतलब न हो
पसीजती दीवारों में चहरे की लकीरें पड़ी हो.

कहने को माँ रोज घर मैं जाता हूँ
पर कहाँ घर जैसा सुख-शांति-संतोष मैं पाता हूँ.

रातें, रात बार जागते रहती है
सुबह भी सूरज को कहीं दूर छोड़ कर आती है
बादल गरजते है, बरसते नहीं
बूँदें आँगन से कहीं दूर गिर जाती है.

कहने को माँ रोज घर मैं जाता हूँ
पर कहाँ घर जैसा सुख-शांति-संतोष मैं पाता हूँ.

भोजन में पहले जैसा स्वाद नहीं लगता
पूजा में मन-भाव नहीं लगता
वस्त्र अब तन पर शोभा नहीं देते
छत के कोनों से जाले उतारने को मन नहीं करता.

कहने को माँ रोज घर मैं जाता हूँ
पर कहाँ घर जैसा सुख-शांति-संतोष मैं पाता हूँ.

- रोमिल

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